सुग्गा की जिंदगी खेत, कस्बा और शहर के चक्कर लगाते बीती जा रही थी। उसके घर की हालत बिल्कुल देश की जैसी थी। चल तो रहा था, लेकिन कैसे? यह खुद सुग्गा को पता नहीं था। सुबह से शाम तक भागदौड़ और मेहनत कर दो-तीन सौ रूपए जैसे-तैसे कमा लेता था। कभी मजदूरी कर लेता, तो कभी किसी के यहां पुताई कर लेता। कभी सहालगों में खाना बनाने लगता तो कभी ठेला लगाकर मूंगफली और रेवड़ी बेंच लेता। उसी में, राशन-पानी और मां की दवा का खर्च निकल रहा था। कभी-कभार तो वह दो-तीन सौ रुपए भी उसके नसीब में नहीं होते थे।
सुग्गा अपनी मां का लाडला था। इसके नाते, मां उसे अपने से दूर भी नहीं जाते देना चाहती थी। रोज-रोज का काम बदलना सुग्गा को भी रास नहीं आता था। लेकिन, उसकी एक मजबूरी उससे यह सब करा रही थी। वह यह थी कि वह पढ़ा-लिखा नहीं था। लेकिन, इससे परे, वह कढ़ा बहुत था।
जिंदगी यूं ही कट रही थी। लेकिन, सुग्गा का मन नहीं लग रहा था। औरों की तरह, सुग्गा के सपने भी मन में रह-रहकर हिलोरे मार रहे थे। वह चाहता था कि कहीं उसको एक अच्छी नौकरी मिल जाए, ताकि वह अपनी मां को लेकर सुकून से रहे। लेकिन, मिले भी तो कैसे? पढ़ा-लिखा तो वह था नहीं। तो कैसे कोई उसे नौकरी दे देगा। यह उसकी जिंदगी का सबसे दर्दनाक पहलू था।
लेकिन, फिर भी सुग्गा ने नौकरी की तलाश जारी रखी हुई थी। बहुत अच्छी नहीं तो कम से कम ऐसी ही नौकरी मिले, जिससे घर का खर्च और महीने की एक निश्चित आमदनी तो हो जाए। पिछले करीब दो हफ्तों से सुग्गा रोज सुबह नौकरी की तलाश पर निकलता और शाम होते-होते घर की जिम्मेदारी उस पर भारी पड़ जाती।
फिर भी, सुग्गा हार मानने वाला नहीं था। दिन, महीने, साल बदलते जा रहे थे। सुग्गा भी लगभग 30 का हो चला था। बढ़ते वक्त के साथ न पूरे होते सपनों की चोट सुग्गा को अंदर ही अंदर दर्द देने लगी थी। कभी-कभीर वह दर्द बाहर भी छलक उठता, लेकिन अकेले में। वह ऊपरवाले से अकेले में शिकायत करता था।
रोज वापस लौटने के बाद वह मन मसोस कर शाम को घर पहुंचता। मां का चेहरा देखता और मुस्कुरा कर हाथ पैर-धोने के बहाने फिर बाहर निकलता और कहीं चला जाता। घर से दूर बहुत पुराने और खंडहर हो चुके एक मंदिर में, जिसमें अब कोई आता-जाता नहीं था, सुग्गा अब रोज शाम को जाने लगा था। कई सालों पहले वहां लोगों ने पूजा-पाठ करना बंद कर दिया था। मंदिर के घंटे चोर चुरा ले गए थे। दरवाजे में लगे पल्लों को भी कोई उखाड़ ले गया था। मंदिर की छतों से प्लास्टर उस तरह गायब हो चुका था, जैसे हिन्दुस्तान से अंग्रेज। बस प्लास्टर की कुछ निशानियां ही बाकी रह गई थीं। वर्षों पुराना शिवलिंग भी कोई उखाड़ ले गया था और उसकी जगह रखे थे पत्थर के कुछ टुकड़े। बिलकुल सालिग्राम जैसे।
काम से लौटने के बाद वह उस मंदिर में घंटों बैठा रहता और उन पत्थरों से बातें किया करता। लेकिन, उसकी बातचीत भी बिलकुल अजीब या यूं कहें कि संस्कारी थी। ‘‘और कैसे हो? पता है आज, एक पट्रोल पम्प गया था, लेकिन वहां काम नहीं मिला। अब क्या करूं? कुछ समझ नहीं आता, तुम ही बताओ ना...। देखो, मैं जानता हूं कि तुम भगवान नहीं हो, तुम तो पत्थर हो, लेकिन, बैठे तो भगवान की जगह हो ना...! अरे, तो कम से कम जगह का ही मान रख लो। बताओ ना... क्या करूं?’’
ऐसी ही बातें होतीं और फिर देर रात सुग्गा मंदिर से घर पहुंचता। उधर, मां भी पिछले दो हफ्ते से गौर कर रही थी कि वह घर आने के बाद कहीं चला जाता और फिर देर रात 9-10 बजे घर आता। वह मन में शंकित हो रही थी कि कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है। जब सुग्गा घर पहुंचा तो उसने पूछा, ‘रे लल्ला, कहां गए हतेव। रोज-रोज निकरि लेत हव। का बात है? सब ठीक तो है ना?’’ ‘‘हां अम्मा, सब ठीक है। बस तनिक कस्बा तरफ चले जाइत हन टहरय।’’- सुग्गा ने मां को दिलासा देते हुए कहा। लेकिन, सुग्गा की मां को अपने लल्ला की बात पर पहली बात ऐतबार नहीं हुआ। और फिर एक दिन.....
क्रमशः....
1 comment:
बहुत ही दिलचस्प कहानी है भईया शीघ्र ही इसको पूरी कीजिये
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