सुबह का वक्त था। आसमान में बदली छायी थी। लेकिन, मौसम गर्म था। संजीव छत पर हाथ में चाय का गिलास लेकर टहल रहा था। इधर से उधर टहलते हुए उसके मन में कई सारे सवाल कौंध रहे थे। चाय की चुस्कियों के बीच कभी वह अपनी छत से शहर की ऊंची-ऊंची इमारतों को देखता तो कभी अपनी छत पर गमलों में लगे हुए पौधों को।
तभी उसकी नजर गमले में लगे एक गुलाब के पौधे पर गई। संजीव ने देखा कि वह सूख रहा है। पत्तियां मुरझाने लगी हैं। दो दिन पहले जो फूल खिले थे, अब वह भी मुरझाने लगे थे। शायद, दो दिनों से उस पौधे को पानी नहीं दिया गया था। मुरझाते हुए पौधे को देखकर संजीव का मन विह्वल हो उठा। संजीव को पेड़-पौधों से बहुत लगाव था। और हो भी क्यों न। बचपन से वह अपने घर में सैकड़ों पौधों को पानी देता चला आ रहा था। वह पौधों को हरा-भरा देखकर बहुत खुश होता था।लेकिन, दिल्ली में न तो उसका अपना घर था और न ही उसके पौधे। और तो और, वह खुद पिछले दो दिनों से इनमें पानी नहीं डाल पाया था। एक टीस उसके मन में बार-बार उठ रही थी कि काश! अपनी दो दिन की व्यस्तता में उसने इतना वक्त जरूर निकाला होता कि वह पौधों में पानी डाल सकता। उसे अपना शहर, अपना घर, अपनी गलियां याद आ रही थीं। उसे अपना बचपन याद आ रहा था।
अब संजीव 35 साल को हो चुका था। पढ़ाई-लिखाई पूरी करने के बाद वह दिल्ली आ गया था। अब वह पैसे कमाने की जुगत में जुटा था। लेकिन, मन में जीता हुआ उसका बचपन उसे बार-बार इस बात को लेकर टोक रहा था, ‘कि तू तो ऐसा नहीं था।’ मानो वह गुलाब का पौधा बार-बार उसे देख कर कह रहा हो, ‘मुझे सिर्फ तुमसे ही उम्मीद है। आखिर, तुमने भी मेरी प्यास नहीं समझी। संजीव, तुम तो ऐसे नहीं थे।’
यही सब सोंचते हुए संजीव के गिलास की चाय खत्म हो चुकी थी। वह वापस नीचे जाने के लिए जीने के पास पहुंचा। एक बार मुड़कर फिर से गुलाब की ओर देखा और मन ही मन कहा, ‘दोस्त, चिंता न करो। आज शाम तुम्हारी प्यास जरूर बुझा दूंगा। अभी दोपहर में धूप होगी। इसलिए, अभी तो नहीं, लेकिन शाम को पानी जरूर डालूंगा।’ संजीव वापस नीचे चला गया, इसी बात को सोंचते हुए कि, ‘वह तो ऐसा नहीं था।’
5 comments:
बेहतरीन
धन्यवाद
मुझे तो तुम ..!
जी शुक्रिया
Nice
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