Wednesday, August 12, 2020

गोकुल में नंदलाल

आगरा में दो दिन बिताने के बाद आशीष और सुनंदा ने तय किया कि इतनी दूर आने के बाद अगर मथुरा, वृन्दावन, गोकुल और बरसाना नहीं गए तो आने का क्या मतलब रहा? भाई, आगरा में किला और ताजमहल देखने से सुकून तो मिलता नहीं। सुकून तो ‘नन्दलाल’ के धाम में ही मिलेगा ना। इसके लिए धाम तक जाना भी होगा। 
दरअसल, सुनंदा ‘कन्हैया’ को दिलोजान से मानती थी। केवल सुनंदा ही नहीं, उसका पूरा परिवार ‘मुरलीवाले’ का परम भक्त था। यहां तक कि घर में एक बच्चे का नाम भी ‘कन्हैया’ रख दिया गया था। जब भी प्रसन्न होती, बस कन्हैया का भजन गुनगुनाया करती थी। लेकिन, सुनंदा का पति आशीष बिलकुल इसके उलट ठहरा। 
आशीष शिवभक्त था, लेकिन था थोड़ा ढ़ीठ। वह तर्क बहुत करता था। उसकी ईश्वर में आस्था होने की थ्योरी भी लोगों से थोड़ी जुदा थी। दरअसल, आशीष का मानना था कि ईश्वर मंदिर, मठों आदि में मिलें न मिलें, तय नहीं है। लेकिन, निर्बल, असहाय और मन से मानने वालों के पास हर वक्त मौजूद रहते हैं। 
इसलिए, वह किसी भी धाम केवल यात्रा करने जाता था, तीर्थयात्रा करने नहीं। हां, कई बार यात्रा ही उसकी इस कदर यादगार बन गई कि वह जहां भी गया, उसकी नज़र में वह तीर्थ बन गया।   
आगरा से ‘नन्दलाल’ के धाम की यात्रा का प्लान करके दोनों लोग (आशीष और सुनंदा) निकल लिए। मथुरा बस स्टेशन पर उतरते ही एक आटो बुक किया और निकल लिए गोकुल के लिए। ज्यों-ज्यों गोकुल की ओर आटो बढ़ रहा था, सुनंदा की खुशी भी आटो की स्पीड की तरह बढ़ती जा रही थी। रास्ते में कहीं फौज की छावनी तो कहीं मंदिरनुमा घर। यमुना मैया का पुल पार करके ज्योंही आटो गोकुल केे किनारे पहुंचा तो एक धोती-कुर्ता पहने हुए, माथे पर वैष्णव टीका लगाये हुए एक करीब 32 वर्षीय युवक बतौर पण्डा सामने आ पहुंचा। अपना और अपने कुल-गोत्र का परिचय फटाफट सुनंदा और आशीष को देने लगा। उधर, आशीष यमुना किनारे लगे कदंब की ओर खड़ा निहार रहा था। न जाने कहां खो गया था आशीष। 
सुनंदा ने आवाज लगाई, ‘अरे सुनो, यह पूरा गोकुल घुमाएंगे। नन्द की गौशाला, नन्द का घर, हर जगह दर्शन करवाएंगे। क्यों न इन्हीं के साथ हो लिया जाए...? आशीष ने तुरंत जवाब दिया, ‘ठीक है, चलो।’ फिर क्या था, पण्डा महोदय भी चल दिये दर्शन करवाने। 
अब जो सफर शुरू हो रहा था, उस पर आगे क्या होने वाला है, उसका अंदेशा न तो आशीष को था, न सुनंदा को और न उन पण्डा महाराज को, जो गोकुल की गलियों में इन दोनों को दर्शन करवाने निकले थे। किसी ने सोंचा नहीं था, कि आगे अचानक वो खुद मिल जाएगा। वो भी इस तरह। निहारते हुए। राह तकते हुए। सजल आंखों के साथ इंतज़ार करते हुए। अचानक, शरीर में दौड़ता रक्त ऐसा बढ़ेगा कि दिल की धड़कन बाहर खड़े इंसान को भी सुनाई देगी। 
गोकुल की गलियों में पण्डा महाराज आगे-आगे इनकी महत्ता बताते हुए चल रहे थे। सुनंदा पण्डा महाराज की बातों को गौर से सुनती हुई पीछे-पीछे चल रही थी और आशीष सुनंदा के पीछे। आशीष पण्डा महाराज की बातें सुन तो रहा था, लेकिन उसका मन कहीं और लगा हुआ था। वह गोकुल की गलियों की रौनक को देख रहा था। उन सबके कदम लगातार नन्द की गौशाला की ओर बढ़ते जा रहे थे। तभी अचानक, आशीष ने देखा कि गली के बायीं ओर एक मंदिरनुमा घर के बाहर चबूतरे पर एक बुजुर्ग विधवा बैठी हैं। उनके चेहरे पर झुर्रियों का बोझ उनकी उम्र को बखूबी बयां कर रहा था। पलकों का भारीपन आंखों को ढ़कने जुटा था। उनको देखते ही आशीष को ऐसा लगा, मानो उन बूढ़ी अम्मा का आशीष से कोई बहुत पुराना रिश्ता है। जैसे, वह उन्हीं की तलाश में गोकुल आया हो। वह बूढ़ी मां आशीष को और आशीष बूढ़ी मां को लगातार एकटक देख रहे थे। आशीष के कदम आगे बढ़ तो रहे थे, लेकिन जबरदस्ती। मानो जैसे कह रहे हो, ‘अरे तुम्हें यहीं तक आना था। इन्हीं से ही तो मिलना था तुम्हें। अरे ठहरो, कहां जा रहे हो।’
इन सब उहापोह की स्थिति के बीच आशीष सुनंदा के साथ पण्डा महाराज के पीछे-पीछे नन्द की गौशाला, नन्द के भवन और तमाम सारी जगह जाता रहा। लेकिन, उसका मन तो वहीं रम गया था। वह जल्द से जल्द उन बूढ़ी अम्मा से मिलना चाहता था। करीब 3 घंटे तक दर्शन करने के बाद जब वे लोग वापस आटो की तरफ जाने को बढ़े, तो आशीष की आंखों में एक बार फिर चमक आ गई। 
आशीष मन ही मन यह सोंच कर बहुत खुश हो रहा था कि, ‘वह बूढ़ी अम्मा एक बार फिर मिलेंगी। इस बार उनसे ढ़ेर सारी बातें करूंगा।’ लेकिन, उसी क्षण एक डर की आहट भी उसके मन पर हुई। ‘अगर कहीं वो दोबारा नहीं मिलीं तो...। आख़िर, फिर कैसे तलाशूंगा? कहां तलाशूंगा? पता नहीं, मिल भी पाएंगी या नहीं...?’ यह सब सोंचते हुए आशीष के कदम तेजी से वापस उसी रास्ते पर बढ़ते चले जा रहे थे, जिस रास्ते पर वह बूढ़ी अम्मा को इस उम्मीद पर छोड़ कर आया था कि, बस अम्मा, अभी आता हूं। फिर, इत्मिनान से मिलूंगा।
तेजी से आगे की ओर बढ़ते कदमों ने सुनंदा को भी पीछे छोड़ दिया था। इतने में एक आवाज आई, ‘अरे धीरे चलो, मैं भी हूं।’ यह सुनते ही आशीष ठहरा और पीछे मुड़कर देखा कि सुनंदा और पण्डा महाराज भी तेजी से पीछे-पीछे चले आ रहे हैं। पास आकर दोनों रूके तो कुछ एक पल दोनों ने गहरी-गहरी जल्दी-जल्दी सांसें लीं। जैसे कोसो दूर से दौड़ते चले आ रहे हों। 
‘अरे, इतनी जल्दी क्या है? पहुंच रहे हैं ना हम लोग। तो फिर क्यों भाग रहे हो?’ सुनंदा ने आशीष से झुंझलाते हुए कहा। आशीष बिना कुछ बोले, चुपचाप धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। उसके कदमों में भले ही गति कम हो, लेकिन उसकी ऊर्जा और बढ़ती जा रही थी। 
तभी वह लोग उस गली की ओर पहुंच गए, जहां वह बूढ़ी अम्मा मिली थीं। ज्योंही दूर से आशीष ने देखा कि वे उसी जगह बैठी हैं, आशीष की आंखों की चमक हैलोजन से कई गुना तेज हो गई। उसी क्षण, मन ही मन आशीष ने ‘कान्हा’ को धन्यवाद दिया कि, ‘उन्होनें उसकी सुन ली।’ दरअसल, नन्द के भवन में दर्शन के समय भी आशीष ने नन्दलाल से बस यही कहा कि, कान्हा, मुझे उन अम्मा से मिलना है अभी। मुलाकात होनी चाहिए, ध्यान रखना। और हां, मुलाकात तुम्हीं करवाआगे।’
लेकिन, विधान को कुछ और ही मंजूर था। ज्योंही, आशीष ने रुकने की सोंची भर, तभी सुनंदा ने कहा, ‘अरे, चलो अब जल्दी। अब देर नहीं हो रही है।’ आशीष ने उन बूढ़ी अम्मा की ओर देखा। बूढ़ी अम्मा ने भी आशीष की ओर देखकर निहारा। लेकिन, दोनों एक दूसरे से बस ‘नयनों से ‘नैनो’ मुलाकात’ ही कर पाए। कुछ दूर चलने के बाद गली के मुड़ते ही उस बूढ़ी अम्मा की आंखों से आशीष और आशीष की आंखों से बूढ़ी अम्मा बोझिल हो गयीं।
लेकिन, अंदर ही अंदर आशीष उनके मिलने को तड़प रहा था। कदम भले ही आगे की ओर बढ़ रहे हों, लेकिन आत्मा तो जैसे वहीं छूट गई थी। गली में मुड़ने के बाद कुछ दूर आगे चलने पर आशीष को लगा कि जैसे वह बूढ़ी अम्मा उसे पुकार रही हो। ‘अरे लल्ला, आ जा। मिल ले एक बार। देख तेरे ही इंतजार में बैठी हूं।’ जैसे ही यह भाव उसके अन्तर्मन में गूंजा। यह शब्द जो प्रकृति में कहीं घूम रहे थे, उसके कानों में पड़े, आशीष ठहर गया वहीं। उसने सुनंदा से साफ कहा, ‘सुनो, तुम चलो। मैं आता हूं। मैं उनसे मिल कर आता हूं।’ इस पर सुनंदा ने कहा, ‘अरे अब कहां जा रहे हो? अब चलो।’ लेकिन, आशीष कहां मानने वाला था। उसने सुनंदा से दोबारा कहा, ‘सुनो, तुम चलो। मैं आता हूं। इच्छा हो, तो साथ चलो। वरना यहीं ठहरो। जैसी इच्छा हो, वैसा करो। लेकिन मैं अभी होकर आता हूं।’ इतना कह कर आशीष पीछे मुड़ा और तेज कदमों से दोबारा अम्मा की ओर चल दिया। 
जैसे ही वह दोबारा गली में पहुंचा, तो जो दूर से देखा, वह उसके लिए अकल्पनीय था। वह बूढ़ी अम्मा उसी गली की ओर निहार रही थीं, जिस गली में आशीष मुड़ा था। जैसे ही, आशीष ने देखा कि अम्मा उसी ओर देख रही हैं, उसकी आंखें सजल हो उठीं। वह दौड़ कर उनके पास पहुंचा और सामने जाकर खड़ा हो गया। दोनों एक-दूसरे को निहार रहे थे। एक-दूसरे को देखकर दोनों की आंखें डबडबा गयीं थीं। दोनों में से कोई भी एक भी शब्द नहीं बोल पा रहा था। 
इतने में आशीष ने अपनी पैंट की जेब में हाथ डाला, जेब के अंदर ही मुठ्ठी बंद की और बूढ़ी अम्मा की हथेली को अपने हाथ में पकड़ा। अपनी हथेली से अम्मा की हथेली पर कुछ रखा और फिर अपने दूसरे हाथ की उनकी हथेली बंद कर मुठ्ठी भींच दी। उन बूढ़ी अम्मा ने अपना दूसरा हाथ आशीष के सिर पर ज्योंही रखा, आशीष को महसूस हो गया कि यह हाथ उस बूढ़ी अम्मा का नहीं, बल्कि इस ‘गोकुल के नन्दलाल’ का है। जो इस बूढ़ी अम्मा के रूप में उससे मिलने आया था। 
दरअसल, कान्हा परीक्षाएं भी बहुत लेता है। वह इस बात को परखता बहुत है कि, कौन उससे मिलने आया है और कौन उसे तलाश रहा है? क्योंकि, मिलना बहुत आसान है, लेकिन तलाशने का मतलब है, कि वह उसके अनुसार अभी नहीं मिला।’ सिर पर हाथ पड़ते ही आंसुओं की धार आशीष की आंखों से बह चली। 
उधर दूसरी ओर, उस बूढ़ी अम्मा ने लाठी को किनारे रखते हुए आशीष को अपने गले से लगाया। गले लगते ही आशीष को एहसास हुआ कि नन्दलाल ने अपनी बाहें फैलाकर उसे अपने हृदय से लगा लिया है। जीवन पूर्ण हो चुका है। अब किसी चीज की परवाह नहीं। बनवारी खुद मिलने चला आया। वह भी इंतजार करता रहा आशीष का। क्योंकि आशीष का स्वागत यात्रा के पूर्व खुद ‘गोकुल ने नन्दलाल’ ने किया था। 
अब आशीष को सबकुछ मिल चुका था। ‘नन्द के लाल के धाम’ की यात्रा शुरू होते ही पूरी हो चुकी थी। वह बार-बार मन ही मन कन्हैया से कह रहा था, बस यही तो चाहता था। अरे कान्हा, यूं ही दिल में बसाए रखना और मैं यूं ही लोगों को बताता रहूंगा कि गोकुल जाना, तो कान्हा से मिलने नहीं, उसे तलाशने जाना क्योंकि ‘गोकुल में नन्दलाल’ बड़ा नटखट है।

Tuesday, June 2, 2020

रोटी ‘दो जून’ की...

आज दो जून है। ‘दो जून’ तो समझते हैं न आप। हो सकता है कि कभी आपका भी पाला पड़ा हो इस एक मुहावरे से ‘दो जून की रोटी’। पढ़े-लिखों के लिए ‘दो वक्त की रोटी’ भी हो सकता है। कोई बड़ी बात नहीं है। भले ही बतौर तारीख, यह साल में एक बार आती हो, लेकिन किसी मुफ़लिस या मध्यम वर्गीय परिवार के मुखिया के लिए तो त़ाज़िन्दगी यह ‘दो जून’ बना ही रहता है। इनमें से किसी से भी पूछ भर लीजिए कि ‘दो जून की रोटी’ क्या होती है, तो जो जवाब आपको मिलेंगे ना, यह तय है कि आपकी आंखें भी डबडबा जाएंगी। आसान नहीं है साहब, ‘दो जून की रोटी’ खा पाना। 
दरअसल, ज़िन्दगी बड़ी बेमुरव्व़त है साहब। इस रोटी को कमाने के लिए पैरों का पसीना सर से बहने लगता है। लेकिन, यह सब ईमानदार और मेहनतकश लोगों के लिए होता है। बेईमानों, चापलूसों, अट्टालिकाओं के बाशिंदों की औलादों को यह तक पता नहीं होता कि ऐसी कोई कहावत या मुहावरा भी होता है। खै़र अपने मुद्दे पर रहें, वही ठीक है, वरना फिर इनके खिलाफ़ ही भड़ास निकलने लगेगी। 
‘दो जून की रोटी’ का सबसे बड़ा उदाहरण अभी पूरी दुनिया ने देखा। जब लाखों की तादात में मेहनतकश अपने घरौंदों की ओर लौट चले थे। सैकड़ों मील, नंगे पांव, कुछ उघारे बदन तो लगभग सब निहारे मुंह और खाली पेट सड़कों पर चलते जा रहे थे। इस उम्मीद में कि अपने वतन, अपने गांव, अपने घर पहुंचेंगे तो सुकून मिलेगा। लेकिन, यह सब लोग कौन थे, पता है? यही वो थे, जिनको ‘दो जून की रोटी’ ने गांव के खेतों से शहर में मजदूर बनने पर मजबूर कर दिया। यह सब अपनी जमीनों के मालिक थे, लेकिन शहर आकर कोइ धोबी हो गया, कोई माली हो गया, कोई मोची हो गया, कोई नौकर हो गया और जो बच गए ज्यादातर वे ‘मज़दूर’ हो गए। यह सब ‘दो जून की रोटी’ का कमाल है साहब। 
सरकारों को इस रोटी से कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि यह रोटी तो आपको कमानी है। देखो, सीधी-सीधी बात है। आप ठहरे पहले से ‘आत्मनिर्भर’। तो फिर आपकी गलती है ना सरकार से उम्मीदें लगाते हो कि सरकार आपकी ‘दो जून की रोटी’ का इंतेज़ाम करेगी। क्यों करेगी? उसे कौन सा फ़र्क पड़ने वाला है। उसके लिए बड़े-बड़े पूंजीवादी लोग हैं। अंबानी, अडानी हैं। अमेरिका के भूरे बंदर का दिलासा है। तो फिर आपकी क्यों सुनें? हां, एक काम करो आप। वो 20 लाख करोड़ का ‘आत्मनिर्भर भारत’ वाला लोन है ना, वो ले लो। उससे आपकी आत्मनिर्भरता इस कदर बढ़ जाएगी कि आप फिर से उसे चुकाने के लिए सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने गांव से कमाने जाऐंगे। क्योकि, गांव-कस्बे में आपकेे जान-पहचान का कोई नेता नहीं होगा। कोई थानेदार आपके काम को सही से चलने नहीं देगा। और अगर, इन सबसे बच भी जाओगे तो कहीं पड़ोसी जलन में कोई काण्ड कर देगा या कोई आपका अपना ही इसमें कोई अड़ंगा लगा देगा। क्योंकि, आप बरसों पहले ही अपना घर-द्वार छोड़ कर ‘दो जून की रोटी’ उनकी नज़र में परदेसी हो चुके हैं। लेकिन फिर भी यहीं कहूंगा कि दो जून की रोटी के लिए इस बार ‘परदेसी-परदेसी जाना नहीं, घर छोड़ के, गांव छोड़ के।’ 

Wednesday, May 20, 2020

पत्थर से गुफ़्तगू...

सुग्गा की जिंदगी खेत, कस्बा और शहर के चक्कर लगाते बीती जा रही थी। उसके घर की हालत बिल्कुल देश की जैसी थी। चल तो रहा था, लेकिन कैसे? यह खुद सुग्गा को पता नहीं था। सुबह से शाम तक भागदौड़ और मेहनत कर दो-तीन सौ रूपए जैसे-तैसे कमा लेता था। कभी मजदूरी कर लेता, तो कभी किसी के यहां पुताई कर लेता। कभी सहालगों में खाना बनाने लगता तो कभी ठेला लगाकर मूंगफली और रेवड़ी बेंच लेता। उसी में, राशन-पानी और मां की दवा का खर्च निकल रहा था। कभी-कभार तो वह दो-तीन सौ रुपए भी उसके नसीब में नहीं होते थे। 

सुग्गा अपनी मां का लाडला था। इसके नाते, मां उसे अपने से दूर भी नहीं जाते देना चाहती थी। रोज-रोज का काम बदलना सुग्गा को भी रास नहीं आता था।  लेकिन, उसकी एक मजबूरी उससे यह सब करा रही थी। वह यह थी कि वह पढ़ा-लिखा नहीं था। लेकिन, इससे परे, वह कढ़ा बहुत था।  

जिंदगी यूं ही कट रही थी। लेकिन, सुग्गा का मन नहीं लग रहा था। औरों की तरह, सुग्गा के सपने भी मन में रह-रहकर हिलोरे मार रहे थे। वह चाहता था कि कहीं उसको एक अच्छी नौकरी मिल जाए, ताकि वह अपनी मां को लेकर सुकून से रहे। लेकिन, मिले भी तो कैसे? पढ़ा-लिखा तो वह था नहीं। तो कैसे कोई उसे नौकरी दे देगा। यह उसकी जिंदगी का सबसे दर्दनाक पहलू था। 

लेकिन, फिर भी सुग्गा ने नौकरी की तलाश जारी रखी हुई थी। बहुत अच्छी नहीं तो कम से कम ऐसी ही नौकरी मिले, जिससे घर का खर्च और महीने की एक निश्चित आमदनी तो हो जाए। पिछले करीब दो हफ्तों से सुग्गा रोज सुबह नौकरी की तलाश पर निकलता और शाम होते-होते घर की जिम्मेदारी उस पर भारी पड़ जाती। 

फिर भी, सुग्गा हार मानने वाला नहीं था। दिन, महीने, साल बदलते जा रहे थे। सुग्गा भी लगभग 30 का हो चला था। बढ़ते वक्त के साथ न पूरे होते सपनों की चोट सुग्गा को अंदर ही अंदर दर्द देने लगी थी। कभी-कभीर वह दर्द बाहर भी छलक उठता, लेकिन अकेले में। वह ऊपरवाले से अकेले में शिकायत करता था। 

रोज वापस लौटने के बाद वह मन मसोस कर शाम को घर पहुंचता। मां का चेहरा देखता और मुस्कुरा कर हाथ पैर-धोने के बहाने फिर बाहर निकलता और कहीं चला जाता। घर से दूर बहुत पुराने और खंडहर हो चुके एक मंदिर में, जिसमें अब कोई आता-जाता नहीं था, सुग्गा अब रोज शाम को जाने लगा था। कई सालों पहले वहां लोगों ने पूजा-पाठ करना बंद कर दिया था। मंदिर के घंटे चोर चुरा ले गए थे। दरवाजे में लगे पल्लों को भी कोई उखाड़ ले गया था। मंदिर की छतों से प्लास्टर उस तरह गायब हो चुका था, जैसे हिन्दुस्तान से अंग्रेज। बस प्लास्टर की कुछ निशानियां ही बाकी रह गई थीं। वर्षों पुराना शिवलिंग भी कोई उखाड़ ले गया था और उसकी जगह रखे थे पत्थर के कुछ टुकड़े। बिलकुल सालिग्राम जैसे। 
  
काम से लौटने के बाद वह उस मंदिर में घंटों बैठा रहता और उन पत्थरों से बातें किया करता। लेकिन, उसकी बातचीत भी बिलकुल अजीब या यूं कहें कि संस्कारी थी। ‘‘और कैसे हो? पता है आज, एक पट्रोल पम्प गया था, लेकिन वहां काम नहीं मिला। अब क्या करूं? कुछ समझ नहीं आता, तुम ही बताओ ना...। देखो, मैं जानता हूं कि तुम भगवान नहीं हो, तुम तो पत्थर हो, लेकिन, बैठे तो भगवान की जगह हो ना...! अरे, तो कम से कम जगह का ही मान रख लो। बताओ ना... क्या करूं?’’

ऐसी ही बातें होतीं और फिर देर रात सुग्गा मंदिर से घर पहुंचता। उधर, मां भी पिछले दो हफ्ते से गौर कर रही थी कि वह घर आने के बाद कहीं चला जाता और फिर देर रात 9-10 बजे घर आता। वह मन में शंकित हो रही थी कि कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है। जब सुग्गा घर पहुंचा तो उसने पूछा, ‘रे लल्ला, कहां गए हतेव। रोज-रोज निकरि लेत हव। का बात है? सब ठीक तो है ना?’’ ‘‘हां अम्मा, सब ठीक है। बस तनिक कस्बा तरफ चले जाइत हन टहरय।’’- सुग्गा ने मां को दिलासा देते हुए कहा। लेकिन, सुग्गा की मां को अपने लल्ला की बात पर पहली बात ऐतबार नहीं हुआ। और फिर एक दिन.....

क्रमशः....

Wednesday, April 22, 2020

ऐसा तो नहीं था...


सुबह का वक्त था। आसमान में बदली छायी थी। लेकिन, मौसम गर्म था। संजीव छत पर हाथ में चाय का गिलास लेकर टहल रहा था। इधर से उधर टहलते हुए उसके मन में कई सारे सवाल कौंध रहे थे। चाय की चुस्कियों के बीच कभी वह अपनी छत से शहर की ऊंची-ऊंची इमारतों को देखता तो कभी अपनी छत पर गमलों में लगे हुए पौधों को। 
तभी उसकी नजर गमले में लगे एक गुलाब के पौधे पर गई। संजीव ने देखा कि वह सूख रहा है। पत्तियां मुरझाने लगी हैं। दो दिन पहले जो फूल खिले थे, अब वह भी मुरझाने लगे थे। शायद, दो दिनों से उस पौधे को पानी नहीं दिया गया था। मुरझाते हुए पौधे को देखकर संजीव का मन विह्वल हो उठा। संजीव को पेड़-पौधों से बहुत लगाव था। और हो भी क्यों न। बचपन से वह अपने घर में सैकड़ों पौधों को पानी देता चला आ रहा था। वह पौधों को हरा-भरा देखकर बहुत खुश होता था।
लेकिन, दिल्ली में न तो उसका अपना घर था और न ही उसके पौधे। और तो और, वह खुद पिछले दो दिनों से इनमें पानी नहीं डाल पाया था। एक टीस उसके मन में बार-बार उठ रही थी कि काश! अपनी दो दिन की व्यस्तता में उसने इतना वक्त जरूर निकाला होता कि वह पौधों में पानी डाल सकता। उसे अपना शहर, अपना घर, अपनी गलियां याद आ रही थीं। उसे अपना बचपन याद आ रहा था। 
अब संजीव 35 साल को हो चुका था। पढ़ाई-लिखाई पूरी करने के बाद वह दिल्ली आ गया था। अब वह पैसे कमाने की जुगत में जुटा था। लेकिन, मन में जीता हुआ उसका बचपन उसे बार-बार इस बात को लेकर टोक रहा था, ‘कि तू तो ऐसा नहीं था।’ मानो वह गुलाब का पौधा बार-बार उसे देख कर कह रहा हो, ‘मुझे सिर्फ तुमसे ही उम्मीद है। आखिर, तुमने भी मेरी प्यास नहीं समझी। संजीव, तुम तो ऐसे नहीं थे।’
यही सब सोंचते हुए संजीव के गिलास की चाय खत्म हो चुकी थी। वह वापस नीचे जाने के लिए जीने के पास पहुंचा। एक बार मुड़कर फिर से गुलाब की ओर देखा और मन ही मन कहा, ‘दोस्त, चिंता न करो। आज शाम तुम्हारी प्यास जरूर बुझा दूंगा। अभी दोपहर में धूप होगी। इसलिए, अभी तो नहीं, लेकिन शाम को पानी जरूर डालूंगा।’ संजीव वापस नीचे चला गया, इसी बात को सोंचते हुए कि, ‘वह तो ऐसा नहीं था।’