Tuesday, June 2, 2020

रोटी ‘दो जून’ की...

आज दो जून है। ‘दो जून’ तो समझते हैं न आप। हो सकता है कि कभी आपका भी पाला पड़ा हो इस एक मुहावरे से ‘दो जून की रोटी’। पढ़े-लिखों के लिए ‘दो वक्त की रोटी’ भी हो सकता है। कोई बड़ी बात नहीं है। भले ही बतौर तारीख, यह साल में एक बार आती हो, लेकिन किसी मुफ़लिस या मध्यम वर्गीय परिवार के मुखिया के लिए तो त़ाज़िन्दगी यह ‘दो जून’ बना ही रहता है। इनमें से किसी से भी पूछ भर लीजिए कि ‘दो जून की रोटी’ क्या होती है, तो जो जवाब आपको मिलेंगे ना, यह तय है कि आपकी आंखें भी डबडबा जाएंगी। आसान नहीं है साहब, ‘दो जून की रोटी’ खा पाना। 
दरअसल, ज़िन्दगी बड़ी बेमुरव्व़त है साहब। इस रोटी को कमाने के लिए पैरों का पसीना सर से बहने लगता है। लेकिन, यह सब ईमानदार और मेहनतकश लोगों के लिए होता है। बेईमानों, चापलूसों, अट्टालिकाओं के बाशिंदों की औलादों को यह तक पता नहीं होता कि ऐसी कोई कहावत या मुहावरा भी होता है। खै़र अपने मुद्दे पर रहें, वही ठीक है, वरना फिर इनके खिलाफ़ ही भड़ास निकलने लगेगी। 
‘दो जून की रोटी’ का सबसे बड़ा उदाहरण अभी पूरी दुनिया ने देखा। जब लाखों की तादात में मेहनतकश अपने घरौंदों की ओर लौट चले थे। सैकड़ों मील, नंगे पांव, कुछ उघारे बदन तो लगभग सब निहारे मुंह और खाली पेट सड़कों पर चलते जा रहे थे। इस उम्मीद में कि अपने वतन, अपने गांव, अपने घर पहुंचेंगे तो सुकून मिलेगा। लेकिन, यह सब लोग कौन थे, पता है? यही वो थे, जिनको ‘दो जून की रोटी’ ने गांव के खेतों से शहर में मजदूर बनने पर मजबूर कर दिया। यह सब अपनी जमीनों के मालिक थे, लेकिन शहर आकर कोइ धोबी हो गया, कोई माली हो गया, कोई मोची हो गया, कोई नौकर हो गया और जो बच गए ज्यादातर वे ‘मज़दूर’ हो गए। यह सब ‘दो जून की रोटी’ का कमाल है साहब। 
सरकारों को इस रोटी से कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि यह रोटी तो आपको कमानी है। देखो, सीधी-सीधी बात है। आप ठहरे पहले से ‘आत्मनिर्भर’। तो फिर आपकी गलती है ना सरकार से उम्मीदें लगाते हो कि सरकार आपकी ‘दो जून की रोटी’ का इंतेज़ाम करेगी। क्यों करेगी? उसे कौन सा फ़र्क पड़ने वाला है। उसके लिए बड़े-बड़े पूंजीवादी लोग हैं। अंबानी, अडानी हैं। अमेरिका के भूरे बंदर का दिलासा है। तो फिर आपकी क्यों सुनें? हां, एक काम करो आप। वो 20 लाख करोड़ का ‘आत्मनिर्भर भारत’ वाला लोन है ना, वो ले लो। उससे आपकी आत्मनिर्भरता इस कदर बढ़ जाएगी कि आप फिर से उसे चुकाने के लिए सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने गांव से कमाने जाऐंगे। क्योकि, गांव-कस्बे में आपकेे जान-पहचान का कोई नेता नहीं होगा। कोई थानेदार आपके काम को सही से चलने नहीं देगा। और अगर, इन सबसे बच भी जाओगे तो कहीं पड़ोसी जलन में कोई काण्ड कर देगा या कोई आपका अपना ही इसमें कोई अड़ंगा लगा देगा। क्योंकि, आप बरसों पहले ही अपना घर-द्वार छोड़ कर ‘दो जून की रोटी’ उनकी नज़र में परदेसी हो चुके हैं। लेकिन फिर भी यहीं कहूंगा कि दो जून की रोटी के लिए इस बार ‘परदेसी-परदेसी जाना नहीं, घर छोड़ के, गांव छोड़ के।’